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ये दरभंगा है मेरी जान

मैं कवि नहीं हूँ!
मैं कवि नहीं हूँ!
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चारों ओर विकास की बातें हो रही हैं. अपने शहर मैं जहाँ तक मुझे लगता है विकास तो हुआ है लेकिन झूठ बोलने की कला का, मनगढ़ंत कहानियां बनाने का और लोगों के भ्रम का. धरातल पर तो विकास जुडी एक भी बात नजर नहीं आई मुझे दरभंगा शहर में. हाँ, कई नामी गिरामी स्कूल और मैनेजमेंट संस्थाएं जरुर पनपी हैं. कुछ कंप्यूटर इंस्टिट्यूट और स्पोकेन इंग्लिश के संसथान भी अब बाजार में उपलब्ध हैं. बाजार, जी हाँ यहाँ शिक्षा का व्यापार होता है और खरीदार समझदार होते हुए भी खुद को ठगे जाने से नहीं रोक पाते.
अब चर्चा छिड़ी है तो पहले शिक्षण संसथान की सच्चाई जान लेते हैं. कहने को तो ये दरभंगा शहर की जान है और दरभंगा में इन्होने क्वालिटी शिक्षा का पर्दापण करवाया है. यद्यपि सच्चाई यही है की, यहाँ न shikshak kehlane laayak शिक्षक ही उपलब्ध हैं और न ही विद्यार्थियों को वो माहौल मिल पाटा है जो उन्हें भारत गणराज्य का एक जिम्मेदार नागरिक बना सके. कारण भी साफ़ है, प्राइवेट स्कूलों में भी सही ढंग से शिक्षा देने के लिए एक आदर्श शिक्षक की कमी है. आदर्श शिक्षक आये भी कहाँ से? इस महंगाई में अगर आप शिक्षकों को १०००-३००० रुपये के मासिक आय पर रखेंगे तो आदर्श शिक्षक कहाँ से पायेंगे. अगर अछे शिक्षक हैं भी तो प्राइवेट टूशन पढ़ाने को बाध्य हैं. ye नहीं है की स्कूलों की आमदनी कहीं से भी कम है, अपितु shikshan संसथान देश के भविष्य के बजाय अपनी तिजोरियां गरम करने में जुटी हैं.
अब बात करते हैं टेक्निकल और vocational संसथान की. गर्म तिजोरियों वाले साहूकारों ने अछे संस्थानों की फ्रंचिसे तो जरुर हासिल कर ली है लेकिन दरभंगा जैसे शहर में स्किल्ड प्रोफेशनलों की भारी कमी है. हो भी क्यूँ नहीं? न सड़क है, न बिजली, न ही स्वयं को विक्सित करने का साधन कोई अपने तलेंट को यहाँ २००० हजार में क्यूँ लगाये जब साड़ी सुविधाओं के साथ उसी काम के लिए उसे बाहर ३०००० हजार रूपये मिलते हों. अब विद्यार्थियों के बारे में क्या बताऊँ श्रीमान. इन्हें देख कर ऐसा लगता ही नहीं की पढ़ने से इनका कभी नाता भी रहा हो. सुबह निकालिए ये शाम, करते मिल जायेगने ये आराम किसी नुक्कर किसी चौराहे पे, सिगरते का काश लगते या चाय की चुस्की लेते. अछे बुरे की खबर से बेखबर खुद के भविष्य को अपने ही हाथों से अंधकार में धकेलते भारत गणराज्य के स्वर्णिम भविष्य.
मेरे संपर्क के कुछ बच्चे पढना तो चाहते हैं लेकिन माहौल और समुचित व्यवस्था न मिलने के कारण पढ़ नहीं पाते. बिजली रहती नहीं, किरासन तेल आम आदमी की पहुँच से बाहर है और भैया हर बच्चा गणेश शंकर विद्यार्थी तो हो नहीं सकता की लेम्प पोस्ट में पढ़ ले. जब इस समस्या का समाधान dhundane कोशिश करता हूँ तो पाटा हूँ की सारी समस्याओं की जड़ हम खुद हैं. हम प्रश्न पूछना ही भूल गए हैं. श्रीमान शिक्षा और व्यवस्था आपका मौलिक अधिकार है. हक़ से मांगिये.

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