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मैं कवि नहीं हूँ,
दिनकर जैसी कोई बात मुझमे कहाँ.
मदिरालय की मिठास, और कुरुक्षेत्र की वीरता,
बच्चन और दिनकर के साथ ही खो गए.
उर्वशी के प्रेम और भारत भारती की महिमा,
विकास और आधुनिकता की गोद मैं सो गए.
कहाँ हैं वो कवि, शब्दों से रण लड़ने वाले,
हर रचना में, विश्व का रंग भरने वाले.
अब तो हर शब्द विचारहीन और श्वेत हैं,
अब कविता की धारा में, दिखता नहीं आवेग है.
कभी प्रजातंत्र की परिभाषा, मन को भाती थी,
कल्पनाएं उनकी जीवन के सौ रंग सिखाती थी.
कहाँ हैं वो रचनाकार, कहाँ हैं वो कवि,
जिनकी कविता के प्रकाश में, बसते थे रवि.
आज के प्रजातंत्र की परभाषा, जनता का वोट है,
और उस वोट की कीमत, कुछ और नहीं, बस चंद नोट है.
कवि के ह्रदय में बसता अब खोट है,
राजनीतिज्ञ, ये तो प्रजातंत्र पर गहरी चोट है.
मैं कवि नहीं हूँ
निराला जैसी कोई बात मुझमे कहाँ.
रश्मिरथी जैसे काव्य तो अब विरले ही हाथों मैं आते हैं,
अबतो विवाह में भी, हमारे हिमेश जी ही छाते हैं.
सारे जहाँ से अच्छा, ऐसे बोल अब किसकी लेखनी लिखती है,
अब पुस्तकों में भी, माओवाद की कहानी बिकती है.
मैं कवि नहीं हूँ,
दिनकर जैसी कोई बात मुझमे कहाँ.
गोदान और गबन के इस देश में,
अब साहित्य का रस अदृश्य होता जा रहा है.
दूर देश का एक राक्षस,
हमारी स्थिति पर, हमारा उपहास किये जा रहा है.
कहाँ हो, मेरे दिनकर, मेरे प्यारे निराला
कहाँ हो, बच्चन, कौन पिएगा अब विष की हाला.
कोई तो मुझे बताये, मेरे ये गुदरी के लाल कहाँ गए,
इस पापी संसार में, इनके बिना कोई कैसे रहे.
में कवि नहीं हूँ,
दिनकर जैसी कोई बात मुझमे कहाँ.
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