मैं कवि नहीं हूँ!
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नवचेतन की कोख से,
बढ़ा, चल पड़ा मैं पंख पसार!
है दंभ अगर तुझे शक्ति का,
तू सुन अब मेरी भी हुंकार!
पथ से विपथ पथिक,
हर समय कहाँ होता है,
भुज में जिसके दम है,
वो भाग्य को कब रोता है!
भू-गर्भ के ताप से तपा हुआ,
मैं बालक हूँ विद्रोही,
मेरे पथ के पर्वत काँप-काँप कहते हैं,
कभी थका नहीं, कभी रुका नहीं, ये कैसा है आरोही?
विश्व-विजय करने का,
मैं आज प्रण लेता हूँ,
देकर अपने तन और प्राण,
पौरुषता का वचन देता हूँ.
तन की ज्वाला को ठंढक,
देता है अब सूरज ताप,
मैं तो चल पड़ा डगर पर,
इसे पुण्य कहो या पाप.
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