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कहाँ जा रहे हैं हम? क्यूँ जा रहे हैं हम; अंधे, बहरे और गूंगों की तरह लोगों के कदम में कदम मिला कर, पीछे-पीछे चलते हुए? मेरे घर में इस बात की कमी है, समाज में ये बहुत बड़ा रोग है, ये लोग देश के लिए अभिशाप हैं- सिर्फ बातें और बातें. आग से भरी हुई, विष का बीज बोती, थोड़ी सच और थोड़ी झूठ बातें. मैं नारी के साथ हूँ, तुम नहीं हो; कभी कोई पुरुष इस तरह के सवाल उठता है तो कभी महिलाएं. मैं पूछता हूँ, क्या आपको नहीं लगता की नारी शशक्तिकरण की चाह में हमने एक इंसानों की एक नयी जमात तैयार कर ली है, जिसे एक दुसरे से प्यार नहीं, घृणा है?
एक दुसरे पर लांछन लगते हुए, क्या हमने स्वयं के अस्तित्व को भुलाना शुरू नहीं किया? जहाँ जाता हूँ, हर जगह मुझे बस एक ही बात सुनाई देती है- महिलाएं अब पहले जैसी नहीं रहीं, अब वो शशक्त और स्वावलंबी हो गयी हैं. अच्छी बात है, लेकिन उनके शशक्तिकरण को पुरुष समाज झेल नहीं पा रहा ऐसा कैसे कह सकते हैं आप? मैं मानता हूँ की हमारा समाज पुरुष प्रधान समाज है और इसमें कुछ विकृतियाँ हैं, जिन्हें बदलने की जरुरत है. नारियों पर हुए अत्याचार की बात भी मानता हूँ मैं, उन्हें उनके सही हक़ से दूर रखने की बात का भी समर्थन करता हूँ मैं.
लेकिन मैं पूछता हूँ, की क्यूँ सहते रहे हम ज़ुल्मो सितम जब रास्ते और भी हैं. मैं इस बात को नहीं मानता की नारी कमजोर है. अगर आप पर अत्याचार हो रहा है तो विरोध करें. लोग कहते हैं की हर नारी काली नहीं बन सकती. मैं पूछता हूँ क्यूँ नहीं बन सकती? उन्हें इतिहास का एक उदहारण दे दूँ; कलिंगा पर जब अशोका ने हमला किया था तो, वहां की स्त्रियाँ ही थीं जिन्होंने उनको भारतीय स्त्री के शक्ति का एहसास कराया था.
भारत, आर्यावर्त या हिंदुस्तान जो भी नाम लें आप, स्त्री शक्ति के इस देश में जहाँ स्त्री हमेशा पूजनीय रही, ये अचानक से बदलाव कैसे और क्यूँ आया? क्या स्त्री दोषी नहीं? इस कलयुग में अगर आपको जीना है तो खुद को सबल बनाना पड़ेगा. रोने की बजाय अगर तलवार उठा कर अत्याचार का सामना करें. और अगर आप विरोध नहीं कर सकते और लड़ नहीं सकते तो मौन हो अत्याचार सहें.
आज बहुत सी चीजों को बदलने की जरुरत है. लेकिन हम क्या करें, हम इन्सान हैं, हम जैसे हैं वैसा ही सोचते हैं. एक सोच मन में आई और उस सोच को सच मान कर पूरी दुनिया को उसी सोच के साथ देखना शुरू कर देते हैं. नारी के विषय में जब बात छिड़ी है तो मैं आज समाज को एक और सच से अवगत करना चाहूँगा.
बहुत पीछे जाने की जरुरत नहीं है, मैं पिछले ३०-४० वर्षों के इतिहास को खंगाल रहा हूँ. बात शुरू करना चाहूँगा, स्वतंत्र भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री, स्वर्गीय इंदिरा गाँधी जी से. जिन्हें भारत की प्रथम महिला प्रधान मंत्री बनाने का गौरव प्राप्त हुआ; पंडित जवाहर लाल नेहरु, एक पुरुष की बेटी थीं वो. जेल की चारदीवारी में बंद होने के बावजूद, जिसने उनका मार्गदर्शन अपने लिखे अविस्मरनीय और प्रोत्साहित करने वाले पत्रों से किया, वो भी एक पुरुष ही था.
किरण बेदी, भारत की अद्वितीय पुत्री, क्या उन्होंने अपने लेख में ये कभी लिखा की उनके पिता ने उनके पढने पर पाबन्दी लगाई थी, या फिर कल्पना चावला जिसने अंतरीक्ष के सीने पे भारतीय नारी के विजय की पताका फहरायी थी, क्या कभी उनके पिता ने उनके विजय अभियान में रुकावट बनने की कोशिश की?
हमें आदत हो गयी है, सिर्फ विकृतियों को देखने की. आदत सही भी है, लेकिन उस विकृति के कारन को जाने बिना पुरे समाज पर उसका कलंक मढ़ देना कहाँ की चतुराई है?
मैं भयभीत हूँ, भयभीत हूँ मैं उन बुद्धिजीवियों से जो नारी का पक्ष लेने की बात करते हैं. जो बात करते हैं नारी पीड़ा की, पक्ष धरते हैं उनको बल देने की और अपने इस प्रयास में जाने-अनजाने, नारी और पुरुष दोनों के मन में नफरत के बीज बो रहे हैं. जहाँ तक रही मेरी बात, तो मैं न पुरुष हूँ, न महिला; मैं इंसान हूँ, वो इंसान जिसे इश्वर ने प्रेम का पाठ पढ़ने के लिए पैदा किया.
मैं समाज के हर व्यक्ति से ये आग्रह करूँगा की, समाज की कुरीतियों का विरोध अवश्य करें. महिलाओं को सम्मान दें, क्यूंकि हम भारतवर्ष के वासी हैं, और हमारे देश मैं नारी, पत्नी नहीं माँ है. लेकिन कुछ विकृत मानसिकता के लोगों द्वारा किये गए कुकृत्यों को पुरे समाज से जोड़ कर न देखें. ये औरत और नारी के संबंधों में एक ऐसी खाई ले आएगा जिसे पाटना मुश्किल हो जाएगा. समय रहते हम अभी न चेते तो वो दिन दूर नहीं जब दुनिया में एक तीसरी जमात खड़ी होगी जो न पुरुष होगा और न नारी.
नारी को पुरुष और पुरुष को नारी न बनाएं, दोनों एक दुसरे के पूरक हैं; इन्हें पूरक ही रहने दे, दुश्मन न बनाएं.
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