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सखि तुम स्वर्ण-बदन!

मैं कवि नहीं हूँ!
मैं कवि नहीं हूँ!
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मेरी ये कविता राधा-कृष्ण के प्रेम को समर्पित है.

सखि तुम स्वर्ण-बदन,
मैं श्याम रंग,
भोला-भला.
सखि तुम कोयल,
अमृत का गान सुनाती हो,
सखि तुम शीतल चन्दन,
मैं अर्धचन्द्र,
विष का प्याला.

अपना मिलन हो कैसे,
मैं प्रेमपुजारी,
तुम मधुशाला?

सखि तुम कामायनी,
नयनों में गहरा सागर,
सखि तुम ज्योति,
मैं अंधकार,
खाली गागर.

सखि प्रेम-मिलन,
कैसे हो,
मैं कठोर,
तुम कंचन बाला?

सखि, बस तनिक,
प्रेम-रस,
मेरे अधरों पर,
बरसा दो,
मेरे सुने ह्रदय-आंगन में,
भोर नया तुम लाओ.

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