मैं मैथिलि भाषा मैं लिखता तो नहीं हूँ लेकिन मैथिलि भाषा की घटती लोकप्रियता को देख कर मन नहीं माना. चूँकि मैथिलि मेरी मातृभाषा है तो इस भाषा के प्रति भी मेरा उत्तरदायित्व बनता है. इस विषय पर मैं तभी लिखना चाहता था जब, सागर रति दीप जारी (१२जुन २०१०), मैथिलि कथा आन्दोलन, में भागीदारी का मुझे सुनहरा अवसर मिला. इस सुअवसर का लाभ उठाते हुए मैंने इसमे बढचढ कर हिस्सा लिया. पुरे दिन बैठ कर मैंने हिंदी में लिखी अपनी कहानी का मैथिलि अनुवाद किया. तीन घंटे की मेहनत के बाद मैं अपनी कहानी को पुर्नारुपें मैथिलि मैं अनुवादित कर पाया. मन बहुत प्रसन्न था. किसी कथागोष्ठी मैं अपनी कहानी को समालोचकों के बीच रखने की बात से ही मन आनंद से भरा जा रहा था.
समयानुसार सानी ७ बजे से कार्यक्रम शुरू हुआ. कार्यक्रम में डॉ, रामदेव झा, मैथिलि पुत्र कवी प्रदीप और अन्य कथाकारों ने भाग लिया. चूँकि डॉ. रामदेव झा और श्री प्रदीप की उम्र अब उनका साथ नहीं दे रही, उन्हें उनके परामर्श और सुझावों के बाद विदा कर दिया गया. मैं श्री कमलेश झा, जो मैथिलि के अत्यंत लोकप्रिय समालोचकोंमैं से एक हैं, के साथ बैठा हुआ था. जबतक उन्होंने कथाओं की आलोचना नहीं की तबतक मुझे उनके समालोचक होने का थोडा सा भी आभास नहीं हुआ. उम्र के अंतिम पड़ाव पर होने के उपरांत भी जिस आत्मविश्वास और उर्जा से उन्होंने मुझसे बात की उससे मुझे थोडा सोचने पर मजबूर तो किया, लेकिन उनके इतने अच्छे और मंझे हुए समालोचक होने की मैंने कल्पना भी नहीं की थी.
अपनी एक समालोचना के समय उन्होंने एक बात कही, “अगर आप ये सोचते हैं की सिर्फ हिंदी को ही आपके योगदान की जुरत है तो आप गलत हैं, मैथिलि भाषा की समृद्धि के लिए भी आपका योगदान वांछनीय है. आप एक भारतीय होने के साथ-साथ एक मैथिल भी हैं, मिथिला आपकी मातृभूमि है, इसकी भाषा और संकृति की समृद्धि और रक्षा भी आपकी ही जिम्मेदारी है. आप एक नहीं दो माओं के पुत्र हैं. और दोनों माओं की जिम्मेदारी आपके दोनों कन्धों पर है”. मैं उनके इस बातसे बहुत प्रभीवित हुआ.
अनुभवी और स्थापित कलाकारों ने अपनी-अपनी कथा कही. सभी कथा को कथाकारों ने सराहा. थोड़ी देर बाद ज्यदातर कथाकार या तो चले गए या सो गए. नवयुवकों और दर्शकों की भागीदारी नगण्य रही. अपनी मात्री भाषा की इस दुर्दशा पर मन बहुत दुखी हुआ. अंग्रेजी भाषा की बढ़ती लोकप्रियता का असर न सिर्फ हिंदी झेल रही है बल्कि हमारी क्षेत्रीय भाषाएँ जिन पर हमें हमेशा से गर्व रहा है, अपना स्थान खोती जा रही हैं. एक समय हुआ करता था, जब मैथिलि भाषा के नाट्य और पुस्तकें बहुत लोकप्रिय हुआ करती थी. लेकिन आज नवयुवक सदियों पुराने उस भाषा का तिरस्कार कर रहे हैं, जिसकी न सिर्फ अपनी लिपि है बल्कि
जिस भाषा को भारत की राज्यीय भाषाओँ की अष्टम सूचि मैं भी स्थान प्राप्त है. मैथिलि सीता का दूसरा नाम है . सीता के समय से ही चली आ रही भाषा की इस दुर्दशा पर कोई भी भाषा प्रेमी दुखी हो जाएगा. गाँवों मैं शादियों के समय कोहबर गीत,दूल्हा परीक्षण के गीतों की परंपरा अब गाँवों तक ही सीमित रह गयी है. शहरों मैं मैथिलि भाषा का प्रयोग भी ग्रामीण ही करते हैं. शहर के लोग आपस मैं हिंदी मैं बात करते हैं. लेकिन हिंदी मैं बात करने वाले ये लोग हिंदी का प्रयोग भी सही ढंग से नहीं करते. कर भी कैसे सकते हैं, जिन्हें अपनी मातृभाषा से लगाव नहीं वो राष्ट्रभाषा की महत्ता क्या समझेंगे?
मैथिलि की घटती लोकप्रियता का एक दूसरा कारन, इस भाषा के लेखक भी हैं. कुछ लेखकों को अगर छोड़ दें तो शायदा ही ऐसे लेखक है जो नक़ल किये बिना लिखते हैं. इस कारणवश उनकी भाषा मैं नयापन नहीं आ पता जिस कारन युवा पीढ़ी उन्हें पढ़ने से परहेज करती है. अपनी एक अलग पहचान बनाने के उद्देश्य से तो इनकादूर-दूर तक लेना-देना नहीं, बस किसी तरह किताब्पुरी करने की कोशिश मैं भाषा सी इनकी पकड़ ढीली पड़ जाती है. अगर इस विषय पर मैथिलि भाषा के संरक्षक जल्दी ही कुछ नहीं करेंगे तो शायद मैथिलि बोलने और समझाने वाले लोग संग्राहलयों मैं ही दिखेंगे.
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