Menu
blogid : 1669 postid : 490

मगर तुम नहीं थे, बस तुम नहीं थे!

मैं कवि नहीं हूँ!
मैं कवि नहीं हूँ!
  • 119 Posts
  • 1769 Comments

दोस्तों गुस्ताखी के लिए माफ़, आज कुछ इसी मुड में था मैं. सोचा, आपसे भी बाँट लूँ. आपको कैसा लगा ज़रूर बताईएगा.

भीड़ में तलाशती मेरी नज़र,

यहाँ भी गिरी, वहां भी गिरी,

शहर देखा हमने, देखि दोपहर,

नज़र आया हर शख्स मुमकिन मुझे,

मगर तुम नहीं थे, बस तुम नहीं थे.

टीस उठती रही, ज़ख्म सीते रहे,

घुट-घुट के जाम-ए-बेखुदी भी पीते रहे,

मिले हमको ग़म, मिली है जुदाई,

मगर तुम नहीं थे, बस तुम नहीं थे.

हम थे खामोश, तुमने भी कुछ न कहा,

प्यार बेसब्री से अपना बढ़ता रहा

,जाम आँखों से तुम छलकाते रहे,

प्यास दिल की हमारी बुझाते रहे,

रंजिश-ए-गम दिया जब ज़माने ने हमको,

मगर तुम नहीं थे, बस तुम नहीं थे.

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published.

    CAPTCHA
    Refresh