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नाटक(सत्य के साथ मेरे प्रयोग)

मैं कवि नहीं हूँ!
मैं कवि नहीं हूँ!
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“एक छोटी सी दुर्घटना, एक क्षणिक आवेग के कारण, एक परंपरा टूट गई. अरे आप ये क्यूँ नहीं समझते, इश्वरगंज में कला का विकास रुक गया है. उन्होंने गलती की, तो क्या हम बेदाग हैं. अपने दामन में झाँक कर कहिये. अरे कबतक हम छोटी-छोटी बातों में उलझे रहेंगे. आप और मैं कब ये समझेंगे की हम इकीसवीं सदी में जी रहे हैं”, मेरा इतना कहना था की रामचंद्र बाबा ने मुझे रोक दिया.
प्रदीप बाबु नया खून उबाला मारता ही है. आपकी समझदारी कहाँ गई? देखिये अगर नाटक होगा तो वहां विवाद होगा ही, हरिजन कहेंगे हम भी स्टेज पर उतरेंगे. रामचंद्र बाबा ने कहा.
बाबा वो अगर स्टेज पर उतारते हैं तो उतरने दीजिए. आप कला को जात-पात और उंच नीच से दूर रखिये. आपको क्या लगता है उनमे कला नहीं है? अरे इस धरती पर कौन सा ऐसा व्यक्ति है जिसे विकास से प्रेम नहीं है. आपलोग भले ही नाटक को ओछा माने, मैं इसे समाज को जगाने का एक माध्यम मानता हूँ. गिनकर बताइए कितने ऐसे लोग हैं जिन्होंने इश्वरगंज के मंच पर अभिनय किया हो, या उनकी भागीदारी रही हो, और वो असफल हों? अरे कोई नहीं मिलेगा. मंच पर अभिनय करने के लिए अकूत आत्मविश्वास की जरूरत होती है. लोगों से स्वयं को अभिव्यक्त करने का अधिकार छीन गया है, इतना कहते-कहते मेरी आँखें भर आई.
“बाबा दो मिनट का समय चाहता हूँ”, कहते हुए मैं उठकर नारायण मंदिर के प्रांगन में टहलने लगा. शांत और निर्मल जल से भरा हुआ तालाब, मंदिर प्रांगन की शोभा बढ़ा रहा था. मैं घाट की तरफ बढ़ा. “लेकिन इंसान, इंसान कहाँ शांत है, वो अभी भी जकडा हुआ है, जन्म के बंधन में, रंग के बंधन में. क्या सभी लोग एक साथ नहीं रह सकते. आजादी के ६३ वर्षों के बाद भी जात-पात, उंच-नीच और अमीर-गरीब के बीच के खाई कम कहाँ हुई. कौन कहता है की भारत के हिंदू और मुस्लमान अलग-अलग हैं? अयोध्या पर जिस तरह से दोनों ने समझदारी का परिचय दिया, वो एक हैं. अलग तो हिंदू और मुस्लमान स्वयं में हैं. कोई ब्राह्मण है तो कोई क्षत्रिय, कोई यादव है तो कोई पासवान, कोई सिया है तो कोई सुन्नी. भारतीय कोई नहीं है”, अपने चेहरे को धोते हुए मैं स्वयं से बातें कर रहा था.
मुंह धोकर जैसे ही उठा, तालाब में स्वयं के प्रतिबिम्ब को देख ठिठक गया. “कहाँ जा रहे हो, किसी की मत सुनो सिर्फ अपने ह्रदय की आवाज़ को सुनो. वहां बैठा कोई भी व्यक्ति तुम्हारे साथ नहीं है. तुम अकेले हो और तुम्हारे साथ सिर्फ मैं हूँ. कितना अच्छा लगेगा जब एकसाथ फिर से इश्वार्गंज के दुर्गा मंदिर प्रांगन में १०० वर्षों से भी पुराणी परंपरा दुबारा शुरू होगी. कितना सूना था ये प्रांगन पिछले तीन वर्षों से. अभी तक किसी ने प्रयास नहीं किया. माँ ने तुम्हें चुना है इस काम के लिए. आगे बढ़ो, तुम विजयी होवोगे”, ये शब्द कहाँ से आये, किसने कहे, पता नहीं, लेकिन सच्चाई थी इन शब्दों में.
कुछेक मिनट शांत हो मैं प्रांगन में टहलते हुए ह्रदय की गति को सँभालने का प्रयास करने लगा. कोई साथ आये या न आये. मुझे हर हाल में प्रयास करना है. बिना प्रयास किये कैसे जान पाऊंगा की लोग क्या चाहते हैं. सोचते हुए मैं सभा में बैठ गया. युवा वर्ग का प्रतिनिधित्व करने का मेरा ये दूसरा अवसर था.
“आपलोग चाहे जो कहें, मैं अपनी तरफ से प्रयास जरुर करूँगा. आगे माँ जाने. नव-युवकों से मैं इतना ही कहूँगा की समय आ गया है, इस बात को साबित करने का की हम भौतिकतावादी नहीं हैं. हमें भी कला से प्रेम है, हमें भी शिक्षित और विकसित होना अच्छा लगता है. हमें ये दिखा देना है की हम युवाओं को अपनी सभ्यता और संस्कृति से लगाव है. हमारे अभिभावक चिंतित हैं, वो सोचते हैं हम गुमराह हो गए हैं. हम गुमराह नहीं हुए हैं. हम थोरे ‘फटाफट’ काम करने वाले हो गए हैं. हमारी रफ़्तार देख कर उन्हें इस बात की चिंता सताती है की कहीं हमें ठेस न लग जाए”, मैं खो गया था.
“क्या आप लोग मेरे साथ हैं? क्या आप बदलाव के पक्षधर हैं? क्या आप स्वयं को बदलना चाहते हैं? क्या आप हरिजन और ब्राह्मण की भावना मन से निकल कर आपस में एकसाथ काम करने को तैयार हैं? अगर आप तैयार हैं तो ठीक है, वर्ना तैयार हो जाइए, बदलाव की शुरुआत घर से ही होती है”, मैं स्वयं नहीं समझ पा रहा था मैं क्या कह रहा हूँ? बस शब्द अपने आप निकल रहे थे.
“हम आपके साथ हैं प्रदीप भैया. हम सब साथ मिलके अपनी परंपरा को आगे बढ़ाएंगे. हम अपने उम्र के हमारे हरिजन दोस्तों से कहेंगे की जब हम साथ रहते हैं, साथ घुमते हैं और साथ पढते हैं तो जात-पात की ये वैमनस्यता क्यूँ?”, राजीव के इतना कहते ही सारे नवयुवक उसकी हाँ में हाँ मिलाने लगे. मैंने क्या कहा था, कैसे कहा था ये तो मैं स्वयं भी नहीं समझ पाया. लेकिन कहते हैं न ह्रदय से निकली हुई आवाज को शब्दों की आवश्यकता नहीं होती. भावनाओं की कोई भाषा नहीं होती. अभी कुछ देर पहले तक मैं अकेला था. आज मेरे साथ ६ नवयुवक थे.
“प्रदीप बाबु, जब आप नाटक करियेगा, तो ताटक भी होगा. और हमारी उम्र अब इतनी नहीं रही की हम विवादों में उलझें. हम आपके साथ नहीं हैं”, टुन्ना चाचा ने कहा. उनके इतना कहते ही सारे बुजुर्ग उठकर जाने लगे. मैंने उनको रोकते हुए थोडा समय और देने की प्रार्थना की. मेरे निवेदन करने पर वो रुक गए.
“आप घबराई नहीं, हम पूजा भी धूमधाम से करने के लिए तैयार हैं. क्यूँ दोस्तों?”, मेरे इतना पूछते ही युवकों ने जोर से हामी भरी. मेरा उत्साह दुगुना हो गया. मैंने तुरंत एक समिति बनाने का प्रस्ताव रखा. समिति के बनते ही मैंने बुजुर्गों के साथ-साथ युवकों को भी अगले रविवार को दोपहर में मिलने को कहा.
मंटू की दुकान पर टुन्ना चाचा और चंदर बाबा बात कर रहे थे. बड़े आये पूजा करने वाले. हरिजन मुंह तोड़ेंगे तब समझ आएगी इनको. समाज सुधारक बनने चले हैं. देखते हैं नई मछली कितना फुदकती है, बिना पानी के. अरे जहाँ हमलोग नहीं जायेंगे, वहां कुछ हो पायेगा.
सच कहते हो टुन्ना, देखते हैं अखंड पाठ के लिए पंडित कहाँ से लाते हैं. अरे इन नए लौंडों को जानता कौन है? दो ही दिन में समझ जायेंगे की ये दिल्ली-बम्बई नहीं, इश्वरगंज है. हा हा हा, ठहाका लगते हुए चंदर बाबा बोले. मैं वहीँ खड़ा इनकी बातें सुन रहा था. आक्रोश तो बहुत आया लेकिन स्वयं को सँभालते हुए मैंने कहा, बाबा एम्.ए पास हूँ, प्रशिक्षक की नौकरी छोड़ कर आया हूँ. और सबसे बड़ी बात बोली से नहीं, ह्रदय से ईमानदार हूँ. समय आने दीजिए, सब हो जाएगा. मैया हमारे साथ हैं, वही बेरा पार लगाएंगी.
“हम चालीस साल में ऐसा क्या नहीं कर पाए जो ये महाशय कर लेंगे? सुन रहे हैं न बाबा, तीर मारेंगे ये. हाहहाहा, बेटा इतना आसान नहीं है ये. बहुत सारे विधि-विधान होते हैं. पंडित जी को समय-समय पर जगाना होता है. रात भर जागना पड़ता है. और चंदा भी करना पड़ेगा. हो पायेगा ये सब तुमसे”, टुन्ना चाचा के व्यंग्य भरे शब्दों ने मेरे निर्णय को और बल दिया.
चाहे जो हो, मैं हर संभव प्रयास करूँगा की नाटक तो हो ही, पूजा भी पिछले वर्षों से अछि हो. ये मेरा वादा है आप लोगों से. कहते हुए मैं वहां से बाजार की तरफ निकला. रास्ते में राजीव, मयंक, और माधव मिले. मुझे देखते ही मेरे पास आते हुए उन्होंने कहा, भैया आप तो स्वयं लिखते हैं. आप ही कोई नाटक लिखिए न. सरस्वती पूजा में भी तो आपने एक एकांकी लिखी ही थी. लोगों ने पसंद भी किया था हमारे द्वारा अभिनीत उस एकांकी को.
“अरे नहीं, नाटक लिखना बड़ा कठिन है. ५० से ६० पन्ने तो कम से कम लिखने ही होंगे. इतना कैसे लिखूंगा मैं?”, मैंने अपनी असमर्थता प्रकट की.
“आप चाहेंगे तो हो जाएगा भैया. आप कोशिश तो कीजिये.”, माधव ने कहा.
“ठीक है, इसका जवाब मैं कल मीटिंग में दूँगा. अभी मुझे घर जाकर इस बात पर विचार करने दो”, कहकर मैं घर की तरफ चल पड़ा. रास्ते में उनकी बातें बार-बार मुझे लिखने को प्रेरित कर रही थीं. क्या पता मैं एक नाटक लिख ही दूँ, कोशिश करने में क्या जाता है. सोचते हुए मैं घर पहुंचा.
क्या कहानी है, क्यूँ न अपनी कहानी सबको दिखाई जाए. अपने समाज में व्याप्त छोटी छोटी समस्याएं, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और नशाखोरी पर ही एक नाटक लिखने की कोशिश करता हूँ. मैंने लैपटॉप ऑन किया और लिखने बैठ गया. लिखते-लिखते कब सुबह हो गयी पता नहीं चला. मुंह हाथ धोकर मैंने चाय पी और फिर से लिखने बैठ गया. दोपहर में मीटिंग थी. मैंने तय कर लिया था की नाटक की पूरी कहानी आज मीटिंग में सुनाऊंगा ही. ११ बजते-बजते मेरी कहानी पूरी हो गयी. मैं मुंह हाथ धोकर नहाने चला गया.
“स्वर्ग में महादेव के पास देवताओं ने कम्प्लें किया है की ब्रह्मा जी के बनाये हुए कुछ शैतानों ने धरती पर के इंसानों का जीना दूभर कर दिया है. महादेव ने ब्रह्मा जी को ओसामा और लादेन जैसे आपराधिक प्रवृति के इंसानों को बनाने का दंड दिया. उन्हें धरती पर ३ महीने तक तीन नौकरियां करनी हैं और तीन उचक्कों के साथ रहना है. जब ब्रह्मा जी धरती पर जाते हैं तो उन्हें ये उचक्के बहुत परेशान करते हैं, इन्हें चंदा काटने और पुजारी के असिस्टेंट की नौकरी मिलती है”, मीटिंग में अपने लिखित नाटक की कहानी सुनते हुए मैंने कहा.
“धीरे-धीरे ब्रह्मा जी इन उचक्कों की कमीनागिरी से कुपित हो जाते हैं. एक दिन दरभंगा में बाढ़ आया. सभी लोग त्राहिमाम कर रहे थे, वहां भी ये बाढ़ से त्राहिमाम कर रहे स्त्रियों को वासना की नजर से देखते हैं. उधर महादेव को विष्णु जी भ्रमित कर ये बता देते हैं की ब्रह्मा जी भी भ्रष्ट हो गए हैं. महादेव विष्णु के साथ नीचे ब्रह्मा जी को दण्डित करने आते हैं और अंत में तीनो देव जेल में चले जाते हैं और ये तीनों उचक्के स्वर्ग पहुँच जाते हैं”, कहानी समाप्त करते हुए मैंने लोगों के चेहरों को पढने के प्रयास किया. सभी शांत थे, अचानक माधव और राजीव ने तालियाँ बजाई, फिर तालियों से पूरा नारायण मंदिर गूंज गया.
“बहुत अछि कहानी है प्रदीप भैया. कितने कलाकार चाहिए”, राजीव ने पूछा.
“१३ कलाकार चाहिए. हम तो ७ ही हैं. कलाकारों के अलावा चंदा करने के लिए भी कार्यकर्ता चाहिए, और पूजा के कार्य को संपन्न करने के लिए भी लोग चाहिए. अब बस १५ दिन बचे हैं. मंदिर की सजावट के लिए किसी लाइट-साउंड वाले को बुलाओ”, मैंने राजीव से कहा.
तभी राजीव ने चुन्नू को बुला लिया. चुन्नू ने बताया की पिछले साल तक ५५०० रूपये की सजावट होती थी. अचानक मैंने उससे कहा की पुरे गाँव में ट्यूबलाईट लगाना है और दुर्गा मंदिर दस दिन तक सजा रहेगा. सजावट में किसी प्रकार की कमी नहीं करने का निर्देश दिया मैंने. उसने कहा, आपको पता है कितना खर्च आएगा, करीब ३० से ३५ हजार रूपये, आप नहीं कर पायेंगे. कैसे नहीं कर पाऊंगा, मेरी माता रानी के दरबार में पुरे नवरात्रे में कभी भी अँधेरा नहीं होगा. मुझे जितनी मेहनत करनी पड़ेगी मैं करूँगा. जैसी आपकी मर्जी, इतना कहकर वो चला गया.
क्या प्रदीप भैया, इतना खर्च कैसे वहां करेंगे. ३५ हजार सजावट के और ३० हजार अखंड पाठ के. ८० हजार का खर्च, कैसे होगा ये सब? राजीव दुखी होते हुए बोला.
मैंने कहा,राजीव, मैं स्वयं हर दरवाजे पर जाऊँगा. हम हरिजनों से भी कहेंगे की वो अपना आर्थिक योगदान करें. ये पूजा सिर्फ ब्राह्मणों की नहीं है और न ही ये नाटक सिर्फ ब्राह्मणों का है. सारा फसाद इस बात का है की हरिजनों को अभी भी लगता है की वो अलग-थलग हैं. एक बार साथ बैठ कर बात तो करने दो, सब ठीक हो जाएगा. तुमने वो कहावत नहीं सुनी है, “पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोई, ढाई आखर प्रेम के, पढ़े सो पंडित होय.” उन्हें इस बात का एहसास दिलाना होगा की वो भी इस समाज के हैं. और अगर उनका ये हक बनता है की वो मंदिर में पूजा करें तो पूजा अच्छे तरीके से हो इसमें भी उन्हें सहयोग करना चाहिए. और जहाँ तक मुझे लगता है मुझे उनका सहयोग मिलेगा.
“आप जो करेंगे, हम आपके साथ हैं”, सबने एक साथ कहा. मीटिंग समाप्त हो गयी और निर्णय लिया गया की अगले दिन से आर्थिक सहयोग के लिए हर घर में जाना है. सुबह ७ बजे का समय निश्चित कर सभी अपने-अपने घर को आ गए.
८ बज गए, कोई नहीं आया. कुछ देर बाद राजीव और माधव आते दिखाई दिए. उन्होंने आते ही पूछा, भैया कोई आया नहीं? मैं क्या कहता, मैंने कहा कोई नहीं आया कैसे, मैं तो हूँ, तुम लोग एक घंटा लेट हो, चलो अब. वहां से हम सहयोग के लिए चल पड़े. हर घर में जाकर हमने अपने क्षेत्र में होने वाले पूजा और नाटक में सबको सहयोग करने को कहा. अचानक से हर तरफ से समर्थन मिलना शुरू हो गया. लोग बहुत खुश थे. सबने हमें सहयोग देने का आश्वासन दिया.
मुझे मेरे कन्धों पर अब जिम्मेदारी का बोझ महसूस होने लगा था. मुझे ऐसा लगने लगा था की मुझे अब असीम संयम और समझदारी से काम लेना पड़ेगा. तीन वर्षों से जो दूरियां बढती जा रही थी. उसे कम करना मुश्किल सा लग रहा था. अचानक से मेरे दिमाग में हरिजनों से मिलने का ख़याल आया. मैं सीधा उनके बैठक के स्थान पर पहुंचा. वहां ५-६ युवक खड़े थे. मैंने उनसे नाटक वाली बात कही. वो थोड़े चौंक गए. फिर एकाएक उनका चेहरा खिल गया. उन्होंने मुझे चाय की दुकान पर बिठाया और एक कप चाय का ऑर्डर दे कर चले गए.
चाय अभी खतम भी नहीं हुई थी की ३०-३५ लोग मुझे अपनी तरफ आते दिखाई दिए. उनके साथ वो युवक भी थे. उन्होंने मेरे पास आकर मेरे विचारों को जाना और उनपर अपनी सहमति जताई. गाँव के मुखिया ने भी सहमति दी की नाटक एक परंपरा है और यह होना ही चाहिए और शान्ति पूर्वक होना चाहिए.
धीरे-धीरे लोगों की उत्सुकता बढ़ी और उन्होंने चंदा मांगने और पूजा की व्यवस्था करने में अपना सहयोग देना शुरू कर दिया. कलश स्थापना के दिन सारे पंडित अखंड पाठ शुरू करने के लिए एकत्रित हुए. शाम को उनके आराम की व्यवस्था दुर्गा मंदिर के पास ही कर दी गयी. आधी रात को बातों ही बातों में पंडितों ने बताया की उन्हें दक्षिणा बहुत कम मिला करता था. पिछली बार भी पूजा में पैसों के हेर-फेर की जानकारी भी उन्होंने दी. पंडित युवकों द्वारा की गयी व्यवस्था से बहुत खुश थे और उन्होंने युवकों को उत्साहित करते हुए कहा की आपलोगों ने इतिहास बदल दिया. आपकी व्यवस्था से हमलोग बहुत खुश हैं. पूजा से जुड़े सकारात्मक प्रतिक्रिया ने मेरा उत्साह और मनोबल दोनों बढ़ा दिया.
“प्रदीप भैया, हम आपके साथ हैं. पूजा के व्यवस्था में पूरी इमानदारी बरती जानी चाहिए”, माधव ने कहा.
“माधव, हमारी पूंजी हमारी ईमानदारी और हमारी लगन है. अभी बहुत सी मुसीबतें और आयेंगी. डटकर मुकाबला करना है हमें”, मैंने उत्साहित होते हुए कहा.
जैसे-जैसे नवरात्रों के दिन बीत रहे थे, मेरा तनाव बढ़ता जा रहा था. अबतक १५ बार लोगों ने नाटक में अभिनय करने का आश्वासन दिया था और मुकर गए थे. २ दिन बाद नाटक होना था, अबतक तो मैं स्वयं को ये समझाकर चुप करा देता था की अभी समय है. हिम्मत मत हरो. तुम अगर हार मान लोगे तो सब खतम हो जाएगा. अब क्या, हे माता रानी, अब क्या करूँ मैं. अब तुम ही कोई चमत्कार दिखाओ.
मैं भारी मन से रिहर्सल करवाने पहुंचा. वहां पहुँच कर देखा तो बस दो तीन कलाकार ही उपस्तित थे. एक बार फिर स्वयं को समझाते हुए मैं हर कलाकार के घर गया. उनसे आग्रह किया की अब अंतिम समय पर वो अपने पैर पीछे न खींचे. बहुत मिन्नतें की. फिर से रिहर्सल शुरू हुआ. रोज यही तो होता था. रात होते ही मुझे सबको बुलाना पड़ता था, चलो रिहर्सल करना है, सुबह घर-घर जाकर लोगों को उठाता था, भाई चंदा करने नहीं जाना है क्या? बस हर बार यही सोचता, एकबार नाटक शुरू हो जाए, लोग फिर से एक हो जायेंगे.
आखिर वो दिन भी आही गया जब नाटक होना था. तीन उचक्के को मैंने बड़े मन से लिखा था. लोगों ने शुरू में उत्साह नहीं दिखाया, इस वजह से मैं कलाकारों के अभिनय से संतुष्ट नहीं था. लेकिन सबसे अछि बात ये थी की नाटक शुरू हो चूका था. लोग तालियाँ बजा कर कलाकारों का उत्साह बढ़ा रहे थे. मैंने चारों तरफ देखा. लोग खुश तो थे लेकिन भूत में की गयी गलती के दोहराने का डर सबके अंदर था. कहीं न कहीं लोग भयभीत थे की कहीं फिर से विवाद न हो जाए.
धीरे-धीरे मैंने तनाव की रेखाओं को खुशी की लहरों में बदलते हुए देखा. लोग हंस रहे थे. आँखों में खुशी साफ़ दिख रही थी. एक शुरुआत हो गयी थी और उस शुरुआत में मुझे एक सच्चाई नजर आई. सच फिर से जीता था. विजयादशमी के दिन एक बार फिर से भयरूपी रावण का वध हुआ था. एक बार फिर चरों तरफ खुशियाँ थी. लोग खुश थे. बहुत कुछ तो अभी भी नहीं बदला लेकिन बदलने की शुरुआत जरुर हुई.
आज सबकुछ कितना आसान नजर आता है. लेकिन दुर्गापूजा के अनुभव ने मुझे एकबार फिर ‘एकता में बल है’ को मानने पर मजबूर कर दिया. अब मुझे लगने लगा है की हर प्रयास जो एक दूसरे को करीब लाने के लिए किया जाता है, सफल होता है. इसका श्रेय प्रयास को दिया जाना चाहिए, इंसान को नहीं.

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