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दिल तो बच्चा है जी!(U/A)- “Valentine Contest”

मैं कवि नहीं हूँ!
मैं कवि नहीं हूँ!
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आज संजय की शादी है. स्वाति को दुल्हन के लिबास में देखने की अपनी इक्षा को वह छुपा नहीं पा रहा था. बारात दुल्हन के दरवाजे पर जाने को तैयार थी. संजय अपने एकलौते मित्र मोहित का इन्तजार कर रहा था. सहसा वो उसके पास आकर खड़ा हो गया. आज पुरे ४ साल बाद उसे देख कर मन हर्षित हो गया. दोनों, फूलों से सजी हुई वैगन-आर में सवार हो गए. ड्राइवर गाडी चला रहा था और दोनों पीछे की सीट पर बैठ बातें कर रहे थे.
संजय, तू प्रेम-विवाह कर रहा है न? तुने आजतक अपनी कहानी नहीं सुनाई मुझे. अभी तक तो बस लोगों के मुंह से ही सुना है की संजय की कहानी बड़ी अजीब है”, संजय से बातों ही बातों में उसके जीवन के सबसे हसीन पलों के बारे में पूछ, मोहित ने संजय को एकबार फिर से राजनगर की तंग गलियों से होते हुए, गाँव की मदमस्त बहती हवा की सौंधी सी खुशबू का एहसास दिला दिया. संजय आदर्शों के साथ जीने वाला एक ऐसा युवक था जिसने ३० वर्षों तक ब्रह्मचर्य का पालन किया, लेकिन एक उर्वशी आई थी, उसके जीवन में, जिसने उसकी तपस्या को भंग कर उसे प्रेम के मधुर एहसास से भर दिया. एक ऐसी हसीन भूल की उसने, जो उसके जीने का मकसद बन गयी.
प्रेम, शब्दों के भंवर में फंसा एक ऐसा शब्द जिसकी कल्पना मात्र से शरीर एक मीठे आनंद से भर उठता है. कितना नीरस है जीवन प्रेम के बिना.कोई उठता है, उठकर फिर चलता है, चलते हुए रुकता है, पृकृति का सौंदर्य उसकी आँखों को अनायास ही अपनी तरफ खींचती है. सर्दी के मौसम में बर्फीली हवाओं की बेरुखी, सूरज की किरणों को कुहासे की मोटी परत से लड़कर बाहर आते हुए देखना, गर्मी के मौसम में धूल का मिश्रण लिए हुए हवाओं के झुण्ड के बीच, गाँव की पग-डंडियो से गुजरना. प्रेम की ऐसी अद्भुत छटा पहले कभी नहीं देखि थी.
अभी ४ वर्ष पहले की ही बात है, कोई आकर मुझसे कह रहा था, संजय, प्रेम बड़ा अजीब है, हर चीज हसीन और हर नाम जाना पहचाना लगने लगता है. मैंने उसे टालते हुए कहा था, अरे भाई, ये प्रेम तो एक रोग है जिसे लग जाए, हर वक्त बेचैनी और हर घडी बेताबी होती है. मैं नहीं जानता था, कोई आएगा, मेरे सपनों में भी रंग भरने. कोई आएगा जो मुझे प्रेम के अनुपम एहसास को बड़ी सरलता से बता जाएगा. वो कहते हैं न, हर प्रेम कहानी अपने-आप में अनूठी होती है. मेरी भी है. किसी ने ह्रदय के बंद दरवाजों पर हौले से दस्तक दी, थोडा रुक कर मैंने जब दस्तक करनेवाले को जानने के प्रयास में खिडकी से झाँक कर देखा तो पाया, गुड़ियों के लिबास में एक नादान और कमसिन बला की खूबसूरत बाला, अपने उम्र को छुपाने का प्रयास करती हुई, अपनी छुई-मुई आँखों से मुझे ढूंढने का प्रयास कर रही थी. उसकी मासूम सूरत और चंचल निगाहों ने कुछ ऐसा जादू किया की मैं सबकुछ भूल गया और प्रेम के एक ऐसे एहसास से मेरा सामना हुआ जिसने मेरी कहानी को अमर बना दिया.
शायद मेरी जिलेबी की तरह गोल-गोल बातें तुम्हारे पल्ले न परें, इसलिए मैं अपनी पूरी कहानी आज के आधुनिक प्रेम-चाशनी में सराबोर कर पेश कर रहा हूँ. फेसबुक का प्रयोग करते हुए मुझे बहुत दिन हो गए. अभी तक मैंने कभी इस बात को नहीं माना था की आज के इस तेज रफ़्तार जिंदगी में कोई प्रेम की अनूठी दास्ताँ भी इस माध्यम से लिख सकता है. वैसे तो कभी-कभी प्रेम को अंगीकार करने में सदियाँ लग जाती हैं, लेकिन मेरे साथ इसके उलट हुआ. बस कुछ पलों में प्रेम-रस ने मेरी नीरस जिंदगी को खट्टे-मीठे एहसासों से भर दिया.
“आपकी तस्वीर बहुत अच्छी है”, स्वाति के इन शब्दों ने मेरा फेसबुक पर उससे परिचय करवाया.
“तस्वीर तुम्हें अच्छी लगी, शायद पहले भी सुन चूका हूँ. अच्छा अपना नाम तो बताओ. कहाँ की रहने वाली हो, और क्या करती हो?”, मैंने एक साथ कई प्रश्न पूछ लिए.
“हम्म. मेरा नाम स्वाति है. मैं राजनगर की रहने वाली हूँ. और आप?
“मैं भी तो वहीँ से हूँ. तुमने अपने प्रोफाइल में अपने स्थान के बारे में नहीं लिखा. अच्छा, तुम्हारी उम्र कितनी है?”
“१६. और आपकी?”
“अरे बाप रे, बस १६. मैं ३० का हूँ. अच्छा अब मैं चलता हूँ. फिर कभी बात होगी”, मेरा इतना कहना था की वो बिफर गयी.
“क्यूँ, क्यूँ जा रहे हैं आप? अभी-अभी तो आये हैं. आप जानते हैं, मैं कई महीनों से आपसे बात करने को बेताब थी. मुझे आपकी तस्वीर देखते ही आपसे प्यार हो गया और एक आप हैं की आते ही जाने की बात कर रहे हैं”, स्वाति के इस जवाब ने मुझे असमंजस में डाल दिया. मैं सोचने लगा, इतनी कम उम्र में ऐसे तेवर. और लोग क्या कहेंगे? कोई इस बात पर विश्वास कहाँ करेगा की स्वाति ने पहल की? लोग तो यही कहेंगे की मैंने एक कम-उम्र लड़की को बहकाया. अचानक से कई सवाल मेरे मष्तिष्क में कौंध गए. मैंने सोचा अच्छा यही होगा की मैं इस चीज़ को यहीं छोड़ दूँ.
“स्वाति, तुम्हारी उम्र बहुत कम है. तुम पढाई-लिखाई पर ध्यान दो. ये प्यार-व्यार सब बेकार की बातें हैं.”, मैंने उसे समझाते हुए कहा.
“अच्छा ठीक है. बस एक बार मुझसे मिल लों. मैं आपको देखना चाहती हूँ. उसके बाद आप जो कहोगे मैं करुँगी. प्लीज एक बार मिल लों.”
स्वाति के इस प्रस्ताव को मैं ठुकरा नहीं सका. मैंने उससे आने वाले रविवार को मिलने का वादा किया और ऑफ-लाइन हो गया. अभी रविवार को आने में दो दिन बाकी थे. मेरे मन में कई विचार आ रहे थे. कभी दिल कहता, क्या होगा, क्या हुआ जो उसकी उम्र तुमसे कम है? किस दुनिया में रहते हो संजय, अरे कोरी जवानी मिली है, मसल दो, उड़ जाओ भंवरे की तरह. अरे तुम तो भँवरे हो, फूलों का रस पीने की आदत डालो. कब तक यूँही अपनी जवानी बर्बाद करोगे. कब तक आदर्शों को अपनी ढाल बनाओगे, अरे यहाँ लोगों को मौका नहीं मिलता और तुम हो की गोद में आई हुई जवानी को छूट दे रहे हो. ये क्या सोच रहा हूँ मैं. नहीं, नहीं, मैं ऐसा नहीं हूँ. आदर्शों के साथ जिया हूँ और आगे भी आदर्शों के साथ ही जियूँगा. इस रविवार में उसे बता दूँगा की ये प्रेम नहीं है, ये बस एक आकर्षण है और कुछ नहीं. हाँ, मैं उसे बता दूँगा, स्वाति, मैं उम्र में तुमसे बहुत बड़ा हूँ, मेरे बारे में कोई ख्याल पालना तुम्हारे लिए ठीक न होगा. ज़माने में रुसवाई होगी और बदनामी भी. हाँ, बता दूँगा मैं उसे, मैं उसे समझाऊंगा और उसे बताऊंगा की दुनिया ऐसे नहीं चलती. मैं ऐसा नहीं कर सकता. हाँ बता दूँगा मैं!
कोहरे का चादर ओढ़े, रविवार की वो सर्द सुबह, एक अजीब से आनंद को अपने करों में समेट कर लायी थी. उठकर आँखें खोली तो पाया सूरज की गर्म बाहें मेरा स्वागत कर रही हैं. मैं खोया-खोया सा बीती बातों को भूल अपनी ही धुन में गुनगुनाते हुए गुसलखाने में घुस गया. स्नान कर मैं माँ से बातें करने लगा. अचानक से मुझे याद आया की मैंने स्वाति को ११ बजे मनोकामना मंदिर बुलाया है. अपने भुलक्कड स्वाभाव का एहसास होते ही मैं तुरंत तैयार हो मंदिर के लिए निकल गया. सड़क पर आते ही एक अजीब से डर ने मेरे ह्रदय में अपना घर बना लिया. संजय, तुम शिक्षक हो, देखना कहीं एक शिक्षक के मूल्यों के साथ समझौता मत कर बैठना. अनेक प्रश्नाघातों से गुजरते हुए मैं किसी तरह मनोकामना मंदिर पहुंचा. चूँकि रविवार का दिन था और मंदिर हनुमान जी का था, लोग न के बराबर थे वहां. मंदिर के प्रांगन के पास पहुंचते ही मैंने चारों तरफ अपनी नज़रें घुमाई. अचानक से मुझे समय का ख़याल आया. कहीं लेट न हो जाऊं, इस चक्कर में, मैं समय से पहले ही आ गया था. अभी ग्यारह बजने में आधा घंटा बांकी था. हाथ-पैर धो मैं भगवन के सामने शीष झुका प्रार्थना करने लगा. मंथर गति से बहती हुई हवा, और उसमें घुली हुई फूलों की खुशबू ने अजब सा जादू कर दिया मुझपर.
आज से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था. मैं पहले भी कई बार वहां आया था, लेकिन स्वर्गिक आनंद की जो अनुभूति मुझे आज हो रही थी, पहले कभी नहीं हुई. मौसम और मिजाज़ के इस बदले हुए तेवर ने मुझे और सचेत कर दिया. अभी-अभी होने वाली बातों को सोच कर, मन ही मन इश्वर से साथ देने की प्रार्थना करते हुए, मन को स्वयं पर काबू रखने की प्रेरणा देने लगा. चाहे कुछ भी हो जाए, कोई भी अनैतिक कदम मत उठाना संजय. जीवन में ऐसे कई अवसर आते हैं, जब आप भ्रमित हो, जड़ हो जाते हैं और आपको इस बात का उत्तर नहीं मिलता की क्या सही है, और क्या गलत. लेकिन एक किरण हमेशा विद्यमान होती है आपके अंतर्मन में, जो आपके पथ को रौशनी से भर, आपके मार्ग को सरल बनाती है. इश्वर के उस किरण पर भरोसा रखो सब अच्छा ही होगा.
“कैसे हैं आप?”, कोयल सी खनकती हुई आवाज़, मानो मेरे कानों को उनके होने का एहसास करा गयी. ऐसा लगा जैसे इससे पहले वो थे ही नहीं. या आवाज़ की गहराई में छिपे प्यास की महक को मैं अभी तक समझ नहीं पाया था. अभी तक लोगों के मुंह से मदहोश कर देने वाली खुशबू लिए हुए, आपके कानों से आपके ह्रदय में उतर आपके अंतर्मन में सुरों को सजाने वाले संगीत की तारीफ़ सुन, उनकी बातों को झूठा मानता रहा. सच ही कहा था, जिसने कहा था.
“कहाँ खो गए, जनाब? तस्वीर से तो बड़े कोंफीडेंट लगे मुझे. खैर छोडो, मैं कैसी लग रही हूँ?”, उसने खड़े होकर अपनी बाहें फैलाते हुए कहा.
अलग-अलग अंदाज में अपने हुस्न की अदा से मुझे घायल करती स्वाति न जाने क्यूँ मुझे भाने लगी. न चाहते हुए भी उसकी मासूम और नए अंदाज़ ने मुझे चौंकाया ज़रूर, लेकिन उसके सम्मोहन से मैं नहीं बच सका. दिल तो बच्चा है, बहक जाता है. मेरा भी बहका, लेकिन मैंने स्वयं को रोकते हुए अपने आप को समझाने का प्रयास किया और स्वाति को बैठने का इशारा किया.
“देखो स्वाति, ये जो भी हो रहा है वो ठीक नहीं है. मैं तुमसे उम्र में काफी बड़ा हूँ. और हमारा प्रेम, कभी किसी के समझ में नहीं आएगा. लोग क्या कहेंगे.”, मैंने उसके बैठते ही अपनी बात कही.
“क्या यार, तुम भी न किस सदी में जी रहे हो. यहाँ ६० साल का बुढा १६ साल की लड़की से इश्क लड़ा सकता है और तुम, उसकी आधी उम्र के होकर मुझे नसीहत दे रहे हो. मैं तुम्हें अच्छी लगती हूँ? हाँ या ना?” उसने मेरे करीब आते हुए कहा.
मैं चुप था. कुछ सोच नहीं पा रहा था मैं.
“देखो ये सच है की मेरी उम्र १६ वर्ष है, लेकिन कृष्ण की उम्र भी तो राधा से आधी थी. उनके प्रेम को तो लोग अमर मानते हैं. मैंने माना की बहुत सी बातें मेरी समझ में नहीं आती हैं. दुनिया के तौर-तरीकों को अभी करीब से नहीं जाना है मैंने. लेकिन मैंने अपनी प्रेम कहानी से मिलते-जुलते कई कहानियों को पढ़ा है. प्रेम में कोई बंधन नहीं होता. हर बंधन से मुक्त है प्रेम. स्वतंत्र विचारों के उन्मुक्त हो गगन की ऊँचाइयों से भी ऊँचे उड़ने की पहल ही तो प्रेम है. सबकुछ लुटा कर भी ह्रदय में अपने प्रीतम केलिए भावों के भंवर को सजा कर रखना ही तो प्रेम है. और तुम कहते हो मैं तुम से छोटी हूँ.”, स्वाति की बातों का असर हुआ मुझपर.
मैं सोचने लगा, सच ही तो कह रही है. “न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बंधन, जब प्यार करे कोई, तो देखे केवल मन”, जगजीत सिंह के गजल की चंद पंक्तियाँ, इन्हीं पंक्तियों को अपने अंदाज में कहा था उसने.
“ संजय, मुझे एक मौका दो. मैं वादा करती हूँ की तुम जैसा कहोगे मैं वैसा करुँगी. प्लीज. तुम मुझे नहीं जानते, मैं बहुत जिद्दी हूँ.”, स्वाति ने थोडा सा क्रोध दिखाया.
मैं समझ नहीं पा रहा था क्या करूँ. अभी तक मुझे अपने जिस मस्तिष्क पर गुरुर था उसने भी मेरा साथ छोड़ दिया. हुस्न और मासूमियत ने मिलकर मेरे ह्रदय के तारों को छेड़ दिया था. मुझे नहीं पता की कोई और मेरी जगह होता तो क्या करता, लेकिन मेरा मन कर रहा था की मैं उसे बाहों में भर लूँ और उसके गेसुओं को संवारते हुए उससे कहूँ- कहाँ थे इतने दिन. मेरे सुने ह्रदय में वेदना और विरह की ज्वाला पर अपने प्रेम की बारिश करने तुम पहले क्यूँ नहीं आई? शायद अबतक मैं प्रेम के एहसास को इसी वजह से समझ नहीं पाया था. मैं एकटक उसे निहारता, कई तरह के सवालों का हल ढूंढने का प्रयास करता रहा.
“क्या सोच रहे हो संजय? माना तुम मेरे से बड़े हो, तो क्या बुराई है? तुम मेरा ख़याल औरों से अच्छे से रख पाओगे. देखो, मैं आधुनिक जरुर हूँ, लेकिन प्रेम की भावनाओं को समझाने के लिए उम्र की कोई सीमा तय नहीं है. तुम आज मुझसे पहली बार मिल रहे हो, लेकिन मैं तो हर रोज तुमसे मिलती रही. कभी सपनों में, कभी खाबों में, कभी राह से गुजरते हुए. कई बार मुझे इस बात का एहसास हुआ की तुम मुझसे जुदा नहीं हो. तुम यहीं हो मेरे करीब. ज्यादा मत सोचो संजय, बस मुझे अपना लो.”, स्वाति ने भींगी पलकों से मुझसे कहा.
उसकी भींगी पलकों ने मुझे कुछ सोचने का अवसर नहीं दिया. मैंने अपना हाथ उसके हाथ में दिया और उसे अपने और करीब खींच कर उसके आँखों से बहते हुए मोतियों को अपने हथेली पर इकठ्ठा कर उन्हें सहेजने का प्रयास करने लगा. उसका चेहरा, मासूमियत की परिभाषा थी. देखते-देखते ही देखते उसकी चंचल और छुई-मुई सी आँखों में मैं कुछ ऐसा खोया की होश नहीं रहा मुझे. उम्र दीवार लांघ, हर बंधन से मुक्त, हर आशा से आगे, अपने धुन में मस्त, प्रेम की कश्ती में सवार हो मैं एक ऐसी यात्रा पर चल पड़ा जिसके अंजाम की खबर न मुझे थी न उसे.
हमारे प्यार का ये सिलसिला जो फेसबुक की मुलाकात से शुरू हुआ था, प्रेम के राह में आने वाली हर परेशानी को पार करता आगे बढता रहा. जानते हो मोहित, जब मैं उसकी सहेलियों के सामने जाता तो मुझे बड़ी शर्म आती, मैं इतना बड़ा और वो सब कमसिन, लेकिन हर बार स्वाति के साथ ने मुझमे आत्मविश्वास भरा. मुझे आज भी याद है, एकबार वो मुझे अपनी सबसे करीबी दोस्त कमला से मिलाने ले गयी थी. कमला मुझे देखते ही हंस पड़ी. स्वाति उस समय १८ की थी और मैं ३२ का. कमला मुझे देखते ही हंस पड़ी और बोली, अरे कहाँ से इस बुढ्ढे को पकड़ लायी हो. तब स्वाति के जवाब ने एकबार फिर इस बात को साबित कर दिया की जोडियाँ ऊपर आसमान में बनती हैं.
“कमला, एक बात कहूँ. शायद तुम समझ नहीं पाओ. हमारे हिन्दुस्तान में शादियों में समस्या क्यूँ आती है तुम्हें पता है? क्यूंकि हर पत्नी अपने पति में अपने पिता को देखना चाहती है और उसे जब पिता मिल जाता है तो प्रेम अटूट हो जाता है और अगर नहीं मिलता तो खटास आ जाती है. मुझसे भाग्यशाली कौन होगा इस दुनिया में? मुझे तो संजय में पिता और पति दोनों मिले हैं. तुम नहीं समझ पाओगी, क्यूंकि शायद तुमने अभी तक प्रेम-रस को समझा नहीं है”, स्वाति ने कहा.
स्वाति के मुंह से इतनी बड़ी बात सुन मैं तो अवाक रह गया. मन ही मन उसे जीवन भर प्रेम के सागर में गोते लगवाने का वादा करता रहा. उम्र छोटी नहीं होती, इंसान की सोच छोटी होती है और स्वाति ने ये साबित भी कर दिया.
यही थी मेरी कहानी. मोहित, आज मैं जहाँ भी हूँ स्वाति के प्रेम की बदौलत हूँ. और दिल तो बच्चा है, न इसे आज से मतलब है न इसे कल से मतलब है. ये तो बस वर्तमान में जीता है. मोहित के चेहरे पर संतुष्टि के भाव दिखे मुझे. मोहित मेरे कन्धों पर अपना हाथ रख कुछ देर मौन रहा. फिर उसने कहा- ऐसी उलझी नजर उनसे हटती नहीं, रेशमी डोर दांत से कटती नहीं……… दिल तो बच्चा है जी…. हाँ .. दिल तो बच्चा है जी.

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