Menu
blogid : 1669 postid : 556

मैं ना-मर्द हूँ!

मैं कवि नहीं हूँ!
मैं कवि नहीं हूँ!
  • 119 Posts
  • 1769 Comments

महिला दिवस के ठीक एक दिन पहले उपभोक्तावाद और बाजारवाद के सन्दर्भ में जो बातें मैं समझ पाया उसने मुझे ह्रदय तक झंकझोर कर रख दिया. क्या ज़माना था, जब मिल बैठते थे तीन यार मैं, मेरी जीवनसंगिनी और मेरी माँ. फिर एक और साथ मिला, और मेरी बहिन भी हमारे उस तिकड़ी में शामिल हो गयी और ये तिकरी, चौकरी हो गयी. समय बदला, सब बदल गया. माँ परिवार के बोझ तले इतना दब गयी की हमारे साथ समय बिताना मुश्किल हो गया. बहिन अपने ससुराल चली गयी. और मेरी जीवनसंगिनी किसी और संगिनी हो गयी.
लेकिन समय और समाज के इस बदलते परिवेश में, मैंने अपने आपको बचा कर रखा. आसान तो कुछ नहीं था लेकिन असंभव भी तो कुछ नहीं है. धीरे-धीरे जीवन की गाडी चलती रही. अभीतक मैं इस बात को समझ नहीं पाया था की पुरुष और औरत दो अलग चीजें हैं. समय का फेर कहिये या मेरे जीवन की सफेद लकीर, औरतों के काफी करीब रहा और अपने आपको कभी उनसे अलग नहीं पाया. अभी जीवन के हसीं पलों का आगाज़ भी नहीं हुआ था की ओस की बूंदों की कोमलता को मिटाती सूरज की किरणों के बीच एक भीड़ देखि. लोग आपस में बात कर रहे थे, पुरुषों का अत्याचार औरतों पर बढ़ गया, दहेज-दानवों ने हजारों जानें ली. औरत की अस्मिता के रोज हजारों बार तार-तार होने की बातों ने मुझे अंदर तक झंकझोर दिया.
ऐसा कैसे हो सकता है, राम और सीता के इस देश में, जहाँ शंकर से पहले गौरी का नाम आता है, ऐसी घटना एक दुस्वप्न से कम नहीं है. भारत बदला, लोग बदले, लेकिन महिलाओं की स्थिति वहीँ की वहीँ रही, ऐसा लोग कहते हैं. मैं नहीं मानता, क्यूँ मानूं, मैंने देखा है, एक छोटी सी आशा को मैंने वटवृक्ष बनते देखा है. मैंने देखा है, गाँवों से नगरों तक, नगरों से महानगरों तक. हर तरफ हर और, हर दौड से आगे दौड़ती बालाएं. हर स्वप्न से आगे, हर आकांक्षा के परे, सुनहरी आँखों में कई रंगों को समेटे, रंग-बिरंगी तितलियों की कतार देखि है मैंने. मैंने देखा है, कुछ भी कर गुजरने की चाह लिए, अपने पिता की उँगलियों को थामे, अपने भाई के कन्धों पर बैठ, अपने जीवन-साथी के साँसों में सांसें मिलाती जलपरियाँ देखि हैं मैंने.
ये सारी बातें कल तक सच थीं मेरे लिए. लेकिन आज, आज में आहात हूँ, ह्रदय पर हुए आघातों ने आँखों से अश्रु की बजाय लहू को बहाने पर मजबूर कर दिया. मैं बैठता हूँ, क्रिकेट का मैच देखने. मेरी छोटी सी ७ वर्ष की भांजी भी मेरे साथ बैठती है. हम दोनों में बड़ा प्रेम है. आह कितना असीम आनंद है इस प्रेम में. उसकी आँखें जीवन के हर रहस्यों को जानने की इक्षुक लगती हैं. कितना आनंद आता है मुझे उसके प्रश्नों का उत्तर देने में. मामू, सचिन बहुत अच्छा खेलता है, मामू मैं भी नेहवाल बनूँगी, मामू ये क्यूँ होता है, मामू वो क्यूँ होता है? अचानक से कुछ ऐसा होता है जो मुझे इस बात के लिए प्रेरित करता है की मैं टी.वी से बच्चों को दूर रखूँ. लेकिन कैसे, और कितना दूर रखूं?
एक पुरुष एक दुकान पर पहुंचता है, उसके हाथ में दो मोबाईल होते हैं, वो सामन लेता है और महिला के पास छुट्टे नहीं होते. वो उसे कुछ टाफियां देती है और कहती है, माफ कीजियेगा मेरे पास छुट्टे नहीं हैं. फिर एक दूसरा मर्द आता है, क्यूंकि उसके पास लावा का मोबाईल है. फिर से वही चीज दोहराई जाती है और छुट्टे न होने की वजह से उसे कंडोम दिया जाता है. और इसतरह से मर्द और बच्चों के बीच का फर्क समझाया जाता है. इसे गंभीरता से लेना नहीं चाहता था मैं लेकिन एक प्रश्न आया, मामू कंडोम प्रयोग करने पर मर्द बनते हैं क्या? २१वी सदी की बच्ची है, मुझसे कहीं आगे और मुझसे कहीं तीक्ष्ण बुद्धि की. मैं अवाक् रह गया. क्या जवाब दूँ, कुछ समझ नहीं आया? मैं बस इतना ही कह पाया की मर्द बनने के लिए अच्छे कार्य करने होते हैं.
लेकिन ये प्रश्न मेरे मस्तिष्क में गूंजता रहा. किस तरफ रुख कर रहे हैं हम? कोई भी अपनी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं. इस तरह के विज्ञापन क्या असर डालेंगे बच्चों पर, और बच्चों पर ही क्यूँ, आज इस परिवेश में जहाँ “BAD IS COOL”, युवाओं के बीच लोकप्रिय हो रहा हो, राष्ट्र और राष्ट्रीयता की फिकर न होना बेमानी होगी. जहाँ औरतों का एक तबका आज भी बदनामी और ज़िल्लत की जिंदगी जी रहा है तो दूसरा तबका ये कहता दिखाई देता है की मेरे अंग अगर सुंदर हैं तो क्यूँ न दिखाऊं? किस और ले जायेगी ये सोच हमें.
जब ज़रूरत है सबल महिलाओं के आगे आने की और समाज में ब्याप्त व्याधियों को सामने लाकर उनका हल ढूंढने की, नए दौर की नयी महिलाएं लिव-इन रिलेशन की वकालत करती नज़र आती हैं. हम हमेशा इसी बात पर जोर देते हैं की किसकी गलती है, पुरुष की या महिला की? क्या ये दोनों अलग हैं, शरीर से जुड़े दो हाथ, एक दांया और एक बांया, काम अलग-अलग, शक्ति अलग-अलग, लेकिन शरीर की जरुरत को पूरा करने के लिए दोनों सामान रूप से जरुरी. क्या समाज-रूपी इस शरीर के लिए महिला और पुरुष दो बाजुओं का काम नहीं कर सकते. और वैसे भी ताली एक हाथ से नहीं बजती.
तो ज़रूरत क्या है, ज़रूरत है इस बात को समझाने की भारत अलग है, अन्य राष्ट्रों से. यहाँ की संस्कृति में शक्ति का एक अलग स्वरुप बसा हुआ है, स्त्री माता है न की पत्नी और ये हमारे रोम-रोम में बसा है. जब तक एक दृढ मानसिकता के साथ हम, स्त्री और पुरुष दोनों कदम से कदम मिला कर इस उपभोक्तावाद और बाजारवाद का सामना नहीं करेंगे, हल नहीं मिलेगा.
क्या ऐसे विज्ञापन बंद होने चाहिए, या मर्द होने की प्रमाणिकता सिद्ध करते हैं ये विज्ञापन. अगर ऐसा है, तो दंभ से कहता हूँ, मैं ना-मर्द हूँ.

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published.

    CAPTCHA
    Refresh