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चादर कहाँ से लाऊं?

मैं कवि नहीं हूँ!
मैं कवि नहीं हूँ!
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चाय की चुस्की लेते हुए
सड़क को निहार रहा था मैं
सबकुछ शांत था, शीतल हवा
हजारों सुइयां चुभो रही थी,
सर्दी की कंपकंपी
को दूर करने का मेरा प्रयास
अभी सफल भी नहीं हुआ था की
अचानक से लाश की तरह
सर्द और सुनामी से अधिक भीषण
एक मंज़र आँखों के सामने तैर गया
अर्धनग्न एक बेबस अबला
एक छोटे से बालक
की उँगलियों को पकड़कर
जीवन के उतर-चढाव भरे सड़क पर
बदहवास सी चली जा रही थी
शायद मानसिक संतुलन खो चुकी है
मेरा सोचना गलत नहीं था
आह कैसा कारुणिक दृश्य था
ब्रह्माण्ड को संचालित करनेवाली
शक्ति, अपने अस्तित्व से अनजान
अपने शरीर को छुपाने का
प्रयास किये बिना शुन्य
को निहारती आगे बढाती जा रही थी
अचानक पास बैठे एक व्यक्ति ने कहा
सब कर्म का खेल है
आज मिलरहा पकवान
तो कल मिल सकता जेल है
मन तो पहले से ही व्यथित था
मानवता की नीलामी देखकर
कहाँ थे वो लोग
नारी के लाज की रक्षा करने वाले
यहाँ तो बस वेह्शियत थी
और गुजरते लोगों की ललचाई निगाहें
जो उस मासूम के चेहरे के
दर्द को पढने के बजाय
उसके अर्धनग्न शरीर को देखकर
लार टपका रहे थे.
समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ
एक बार सोचा
अपना कपडा उतार कर दे दूँ
भरे बाजार अनावृत होने
का साहस नहीं कर पाया
इतना सोचते-सोचते वो
आँखों से ओझल हो गयी
अचानक उठ खड़ा हुआ मैं
दौड़ कर पास की दुकान पर गया
एक गर्म चादर खरीदकर
सीधा उस अबला के पास पहुंचा
जो ठण्ड से ठिठुर रही थी
उसके लाज के लिए चादर तो ढूंढ़ लाया मैं
लेकिन हिंद के लाज को
ढंकने के लिए चादर कहाँ से लाऊं.

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