अरे ओ शाम्बा, होली कब है रे. शोले फिल्म के होली को देख मेरी नन्ही आँखों ने रंगों की कल्पना की थी. मेरी उम्र के ही छोटे-छोटे बच्चे होली के रंग में ऐसे डूबते जैसे उन रंगों में से अपने रंग को चुनने की शुरुआत करना चाहते हों. गाँव में टोलियाँ होती थी. छोटों की, बड़ो की, वृद्धों की और औरतों की. हर टोली दुसरे टोली को रंगों से सराबोर करने को तत्पर रहती. रत्ना, छोटू, संभु और काजल. गाँव के पास के स्कुल में एक ही कक्षा में पढ़ते थे. छोटू बहुत परेशान था. होता भी क्यूँ नहीं, पिछले वर्ष वृद्धों की टोली ने जिस तरह उनको घेर कर रंगों की बौछार की थी, ऐसा लगा था पूरा गाँव इन्द्रदानुष के सातों रंगों से रंग गया हो. बुद्धि तो इन्होने भी खूब लगायी थी. लेकिन नाकामयाबी हाथ लगी. “इस बार तो हम ही जीतेंगे. मैंने एक मस्त योजना बनायीं है. ये देखो, ये नए ढंग की पिचकारी है. इसे कपडे के अन्दर छिपा सकते हैं”, छोटू ने पिचकारी दिखाकर कहा था. योजना सफल रही. बुजर्गों को रंगने का उनका प्रयास सफल रहा. क्या नजारा था. लोग एक दुसरे को रंगों से भिंगो रहे थे. सारे द्वेष भुला कर. बड़े बुजुर्गों के पैरों पर गुलाला दाल कर उनका आशीर्वाद ले रहे थे. महिलाएं अपनी टोली के साथ मस्त थीं. सबकुछ कितना खुशनुमा था. दही के भल्ले, सेवैयाँ और पूरी. स्वादिष्ट व्यंजनों से भरी थाली. साथ में सामने मालपुआ बन रहा था. जम कर खाया उसदिन मैंने. शाम को कीर्तन मंडली निकली. गाँव के हर दरवाजे पर बैठ कर होली के गीत गाये जाते. ढोलक, मृदंग और झाल के आवाज़ से शमा मीठे संगीत से गूंज उठा. सारे व्यक्ति एक दुसरे से गले मिलते, गालों पर गुलाल मलते आगे बढ़ गए. आने वाली होली से पहले बचपन की होली की यादें ताजा हो गयीं. क्या हसीं दिन थे वो, जब होली एक त्यौहार के रूप में मनाया जाता था. अब तो होली हिंदू त्यौहार के लिए तय की सारी मान्यताओं की धज्जियाँ उड़ाने की कहानी कहता है. पिछले १५ वर्षों में समाज में आये इस अप्रत्याशित बदलाव हो देखकर सभी चकित हैं. बोलना सब चाहता है, कहना सब चाहते हैं और सबको ये लगता है की ये सांस्कृतिक विनाश्गाथा की शुरुआत है. हिंदुस्तान की संस्कृति में आ रहे विकार के प्रतीक के रूप में होली ने अपने कदम तेजी से बढ़ाये हैं. बच्चों के अंदर उत्साह तो वही है लेकिन होली के माहौल में आये नकारात्मक परिवर्तन ने उनके अंदर की इक्षा को धीरे-धीरे खोखला करना शुरू कर दिया है. होली पर अब सौहार्द की बातें नहीं होतीं. शराब के नशे में चूर लोगों को दही भल्ले और सेवियों से कोई प्रेम नहीं है. वो तो कबाब की तलाश करते हैं. बकरे का मांस, मुर्गा और न जाने कितने मांसाहार हैं. इनकी बिक्री ऐसे होती है जैसे बाढ़ग्रस्त इलाके में सत्तू का पैकेट बटता है. लोग अपने द्वेष को भुलाकर कर गले मिलना भूल गए हैं. होली पर अब हुडदंग होता है. शराब की बोतलें खाली होती हैं. नशे का बाजार गर्म होता है. बिना शराब के होली की कल्पना करना अब शायद मुमकिन नहीं. शराब के नशे में धुत लोग बीच सड़क पर हुडदंग करते हैं. पीने वालों को तो पीने का बहाना चाहिए. अरे होली है, बुरा न मानो होली है. और फिर शुरू होता है समस्याओं का सिलसिला. शराब के नशे में दुर्व्यवहार करने की दास्ताँ. सड़क पर चल रहे आम आदमी को परेशान करने का सिलसिला. होली के बहाने न जाने क्या-क्या होता है. कभी पास की सरला को लड़के जबरदस्ती घेर कर रंगों से रंग देते हैं तो कभी सामने वाले शर्मा अंकल को धक्का देकर उनकी टांग तोड़ देते हैं. और न जाने क्या-क्या करते हैं. होली के रंगों को शराब में मिलाने की इस नयी परंपरा को शुरुआत के समय ही दबाना आने वाले समय को सुव्यवस्थित करने में हमारी मदद करेगा. आइये इस होली ये प्रण लें की किसी भी तरह के नशीले पदार्थ का सेवन नहीं करेंगे. क्यूंकि होली के बहाने आपके साथ भी दुर्घटना हो सकती है. साथ ही महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार न हो इसकी जिम्मेदारी हम अपने कन्धों पर लें. तभी एक खुशियों भरी होली से मिल पायेंगे हम.
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