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पूछ प्रश्न!

मैं कवि नहीं हूँ!
मैं कवि नहीं हूँ!
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खड़ा हिमालय काँप रहा, हर पल होते विस्फोटों से,
लोकतंत्र अभिशाप बना, भ्रष्टाचार की चोटों से.

कभी रंगों से होली खेला था, हमने अपने गाँव में
अब लहू की नदियाँ बहती हैं, लोकतंत्र के छाँव में.
भूख और नंगा शरीर, बिक रहे नए बाज़ारों में
नम आँखें और दर्द-का दरिया, दिखता है त्योहारों में.

स्त्री के सम्मान की बातें, बेहया लोग अब करते हैं
भ्रष्ट हुआ इंसान, लोग अब सच्चाई से डरते हैं.
बचपन को वादों और कोरे पन्नों पर बसंत बनाया है
लोकतंत्र की प्रासंगिकता पर एक काला प्रश्न उठाया है.

आरक्षण की आड़ में, नया आतंक उन्होंने बोया,
जनता ऐसी मुग्ध हुई , उसने अपने सतीत्व को खोया.
एक था इंसान, कल तक, बाँट दिया शैतान ने
प्रेम कहाँ, अब कहाँ सत्य, सब मिटा दिया हैवान ने.

सपने से अब जाग, पूछ, प्रश्न अब अपने अधिकार की
ले जवाब, और पूछ प्रश्न , इंसानों के व्यापार की.
कानों को इनके एक हुंकार ही भाता है
आज भी अहिंसा का ही मंत्र, गद्दी इनकी हिलाता है.

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