सलामी सूरज को दी और निकल पड़े मंजिल तो कब से जानता था बस रास्ते की तलाश थी चलते हुए थोडा रुका सामने एक गली थी एक संकड़ी गली नज़र दौराई एक और गली देखि या गली से ज्यादा एक चौड़ी सड़क दुधिया रौशनी में भींगी हुई सड़क बरबस ही आँखों को चकाचौंध कर भ्रमित कर रही थी आँखें चकाचौंध की चाह में थीं और ह्रदय गली की संकीर्णता से प्रभावित हो उस ओर जाने को प्रेरित कर रहा था. मस्तिष्क से जब प्रश्न पूछा तो वह भी कुछ भ्रमित सा लगा. उसका इशारा भी चकाचौंध की तरफ ही था. अब बस आत्मा ही तो बची थी सही राह चुनने में अब बस वही मेरी मदद कर सकती थी उसने कहा सब मैं ही हूँ मुझमे ही है सब मन, मस्तिष्क और शारीर मैं ही तो हूँ. गली संकड़ी है बस उस ओर तुम्हारी मंजिल है राह वही चुनो जहाँ सावधानी हो दुर्घटना की सम्भावना कम हो जाती है. चकाचौंध तो बस आँखों को भाती है आत्मा तो संघर्षशील है, प्रयत्नशील है.
This website uses cookie or similar technologies, to enhance your browsing experience and provide personalised recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy. OK
Read Comments