मैं कवि नहीं हूँ!
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ना होती गर ये आँखें मेरी तो क्या होता
ना ज़मीन होती खूबसूरत,
ना ये आसमानी रंगों कि चित्रकारी होती,
ना होता हुस्न का दीदार,
ना होती दीवाली और ना धुप बयां होता
ना होती गर ये आँखें मेरी, तो क्या होता
तेरे माथे पर आये लटों के अक्स, ना होते दिल के अंदर,
ना तेरे कंपकपाते होंठों कों गज़ल बनाता मैं
ना मिलता सुकून फिर तेरी पलकें झुकाने पर
ना तेरी पलकों से गिरते आंसूं मैं होठों से चुनता
ना होती गर ये आँखें मेरी तो क्या होता
ना रंगों कि पहचान होती
ना मंजिल आसान होती,
ना सूरत होती निगाहों में,
और ना बदसूरती का निशां होता
ना होती गर ये आँखें मेरी, तो क्या होता
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