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गरीब हर साल दीवाली नहीं मनाया करते!

मैं कवि नहीं हूँ!
मैं कवि नहीं हूँ!
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मैं खड़ा हूँ अमीरों के घर के बाहर,
उनके गलीचों से आ रहि रौशनी
से रौशन हो रहा हूँ.
कभी देखता हूँ मेरे हृदय
के अन्तः में संचरित रौशनी
कभी टिमटिमाते तारे ज़मीन
पर देख हैरान हो जाता हूँ
उनके गलियों में खुशियाँ देख
परेशान हो जाता हूँ
और सोचता हूँ
क्या सच में खुशियाँ हैं ज़मीन पर
या फिर ये दुधिया प्रकाश दिखावा है
क्या ये प्रकाश सदा विद्यमान रहेगा
या फिर नेताओं के वादों कि तरह
मुझे लुभाकर अपने वश में करेगा
और फिर कभी प्रकाशमय ना होने
का वादा कर चला जाएगा.
उनके बच्चे खेल रहे हैं वहाँ
आलिशान बंगलों के बाहर
रंग-बिरंगे कपडे और हाथों
में पटाखों का थैला लिए
कितना हसीन है दृश्य
हर हँसी मेरे आँगन के गम
में भींगा हुआ है
जहां मेरे बच्चे मेरा इन्तेजार
शाम से ही कर रहे होंगे
लेकिन मैं बेईमान हो जाता हूँ
क्या लेकर जाऊँगा उनके पास
कमबख्त, ये प्रकाश वहाँ तक ले जाने के लिए
कोई थैला भी तो नहीं है मेरे पास
ना ही इन पटाखों कि गूंज
किसी डब्बे में बंद कर ले जा सकता हूँ
इन कपड़ो से रंग कैसे चुराऊं
सोचता हूँ एक वादा ही कर दूँ
तुम्हारा ये गरीब बाप
अगले साल तुम्हारे जीवन कों
रौशन करेगा, क्यूंकि गरीब हर साल
दीवाली नहीं मनाया करते!

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