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एक आम आदमी हूँ मैं!

मैं कवि नहीं हूँ!
मैं कवि नहीं हूँ!
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एक आम आदमी हूँ मैं
कभी गिरता हुआ, कभी संभलता हुआ
कभी चलता हुआ, कभी रुकता हुआ
कभी रोते, कभी गाते
कभी ग़मों को गुनगुनाते
सड़क से गुजरता हुआ
गलियों से चलकर
संघर्ष से छनकर
कदम दर कदम
अपनी रोजी-रोटी की तलाश में
कभी गाँव, कभी शहर
कभी नगर, कभी महानगर
की ख़ाक छानकर सुकून के दो वात्क्त के जुगाड़ में
कभी महलों के दरवाजों पर
कभी राजपथ के मंदिरों के
बाहर दस्तक देता
एक आम आदमी हूँ मैं
कभी चौराहे पर
कभी बाज़ार में
खुद की बोली लगाने वाला
कभी हालत का मारा हुआ
कभी समय से हारा हुआ
कभी महंगाई के बोझ तले पिसता हुआ
कभी अपने नसीब को पथ्थरों पर घिसता हुआ
धुप के ताप से बचने के लिए
एक अदद आशियाने की तलाश में
इस घर से, उस घर के
चक्कर लगाने वाला
एक आम आदमी हूँ मैं
कभी रोटी के लिए
कभी छोटी के लिए
कभी बगावत के लिए
कभी चाहत के लिए
कभी माँ की दवाई के लिए
कभी बहिन की विदाई के लिए
कभी मिलों में
कभी मंत्रियों के किलों में
अपनी ईमानदारी के पोछे से
बाबुओं के लहू की प्यास उझाने वाला
एक आम आदमी हूँ मैं!

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