मैं कवि नहीं हूँ!
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उफ़ ये दुनिया और ये शरीफ चेहरे
घिन आती है मुझे अब जीने में
उफ़ ये देते हैं जफा और कई घाव गहरे
अब तो बीतेगी उम्र ज़ख्मों को सीने में
तकल्लुफ करके मेरे इश्क को बदनाम करते हैं
शराफत से अपनी ये क़त्ल सुबह शाम करते हैं
इनकी आस्तीन में छुपा है जेहर कोई देखता कहाँ
ये तो ईमान की नीलामी का ही बस काम करते हैं
मेरी सूरत पर तुझे इ मालिक क्यूँ नहीं रहम आया
क्यूँ दी तुने शराफत और शकल कौम का बनाया
उनके अल्फाजों के तीर मेरे सीने पे आ के ठहरे
अब तो चाहत है मिलूं तुझे मदीने में
तेरी चाहत क़ुबूल है मुझको, लगा ले वक़्त जितने पहरे
निखिल होता है खुदाहाफिज़, जाना है उसे मौत के महीने में.
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