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कभी-कभी सोचता हूँ मैं, आखिर हो क्या रहा है इस देश में. छद्म, छलावा और व्यर्थ दिखावा. कोई अपने में मगन है, कोई अपनों में मगन है. सड़क पर चलते हुए अक्सर सोचता हूँ. आसमान की और मुंह कर देखता हूँ. ढूंढने की कोशिश करता हूँ भगवान को, .कहीं है! कहाँ है. जो लूटते हैं, जो लुटाते हैं, जो बेसिरपैर बातें बनाते हैं. कहाँ रोकता है उन्हें कोई. मौन था, कई दिनों तक. लोगों को लगा मैं सदमे में हूँ. उन्होंने सोचा की मैं चुप हो जाऊँगा. चाहता तो मैं भी था, चुप होना. नहीं रह पाया अपने अन्तः के अंतर्द्वंद्व से लड़कर आखिर शब्दों ने फिर मेरे जेहन से निकलना शुरू किया.
किसी पर तंज कसने का बीड़ा मैंने नहीं उठाया है. राष्ट्र में परिवर्तन लाना मेरे बूते का नहीं. मैं तो बस अपनी कह रहा हूँ. पढ़ने को भी नहीं कहता मैं. मैं तो लिखता ही अपने लिए. मैं पढूं, मैं लडूं. कठिनाइयों से, चुनौतियों से. किसी को मोदी से रंजिश है, कोई शाहरुख़ से खफा है. पीछे छुटा, तो बस वफ़ा है. किसपे भरोसा करूँ, यहाँ तो अपने ही दुश्मन हैं. कुछ दिनों पहले ही मेरे शहर में एक पुत्र ने अपने पिता की हत्या सिर्फ इस लिए कर दी की उसे उसके पिता की सरकारी नौकरी चाहिए थी. कहाँ आ गए, हम और तुम. पिता की हत्या. छी, छी. अब यही दिन देखना था.
देखता हूँ, महिलाओं की तरक्की. सोचता हूँ, ये बेहतर है या वो. इतिहास पढ़ा मैंने. सिन्धु-घाटी सभ्यता का इतिहास. मातृसत्ता का इतिहास. स्त्री के वर्चस्व का इतिहास. स्त्री-प्रधान समाज का इतिहास. वर्तमान, तो कोरा काजग प्रतीत होता है. जहाँ स्त्री का अस्तित्व सिमटा हुआ है, वादों में, आंकड़ों में. जहाँ स्त्री की तरक्की दिखाई देती है योजनाओं में. क्या ह्रदय पर हाथ रख कर हम ये कह सकते हैं की हमने अपने स्वर्णिम इतिहास के अस्तित्व को पुनः पा लिया है. लोग सोचेंगे, और सोचते भी हैं. कमियां निकलता हूँ मैं. हाँ निकलता हूँ, दुखी हूँ न. सड़क पर चलता हूँ,. कड़ी धुप में मेहनत करता हूँ. अपनी रोटी के लिए एक-एक रूपये का जुगार करना कितना मुश्किल होता है जानता हूँ. जानता हूँ मैं वादों से पेट नहीं भरता, और ये भी की मैं लिख कर कोई क्रांति नहीं लाने वाला. क्यूंकि मैंने लिखना किसी से वसीयत में नहीं पाया. किसी परिवार से नही हूँ न!
पढ़ा मैंने, ढेरों लेख और देशभक्ति से ओत-प्रोत कवितायेँ . अच्छा लगा. एक दिन तो ऐसा होता है पुरे वर्ष में जब याद करते हैं हम अपने राष्ट्र को. लेकिन युवा-शक्ति की बात कुछ जमती नहीं मुझे. क्या करूँ, युवक अब रहा नहीं. और देखता हूँ जब उन्हें अपने अस्मिता की तलाश में यहाँ वहां भटकते हुए तो तकलीफ होती है. अस्तित्व की तलाश में है युवा. रोमांच चाहिए उसे.क्रांति लायेंगे युवा. मैकडोनाल्ड, पिज्जाहट, केफे-कोफ़ी-डे के साथ अपनी पहचान खोते युवा. वो युवा जो अपनी पहचान मल्टीप्लेक्स के साथ जोड़-कर देखता है. वो युवा जो फ़िल्मी सितारों की पूजा करता है. वो युवा जो घर पर अपने बूढ़े माँ-बाप को रोज तिल-तिल मारता है. कैसे करेंगे ये राष्ट्र निर्माण? लोग कहते हैं युवा भारत का भविष्य हैं. मुझे युवाओं के भविष्य पर ही संकट नजर आता है.
कितना मुश्किल है गरीबों के लिए ज़िन्दगी बसर करना खुद से ही समझता हूँ. मेरे एक मित्र ने कहा था, इमानदारी से काम करते हुए अगर अपने लिए एक कमीज खरीद लोगे तो समझाना भगवान् मिल गया.
इन्तेजार कर रहा हूँ. बदलेगा, कभी तो समय बदलेगा. सुना है इतिहास अपने को दोहराता है. उसी दोहराव के इन्तेजार में खड़ा हूँ. शायद इसीलिए अपनी जिद पर अड़ा हूँ. जिंदा हूँ तो बस इस खातिर की कल आएगा, नया सवेरा लायेगा. देखता हूँ सूरज कब उगता है?
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