एक चीख जो गुम हो गयी अँधेरी गलियों में कानून की पेंचिदगी और सामाजिक ढकोसलापन के मायाजाल में और गलती किसकी है जैसे बेतुके सवाल में एक दर्द जो बेदर्द कर गया ज़ेहन में खौफ भर गया सवाल दर सवाल और फिर उनका जवाब फिकर कहाँ हुई किसी को कहाँ देखा किसी ने कुचला हुआ ख्वाब जो निडर थी शक्ति का स्वरुप थी इसकी उसकी हम सबकी की गलती से निशक्त हो निढाल हो लुटती रही छटपटाती रही लूटने वाले को सपने सुनाती रही मगर हवस कहाँ सुनता है वो तो बस मांस का शौक़ीन है बस में, कैब में मेट्रो में, चौराहे पर रोज कहीं कोई चीख गुम हो जाता है और मजे लेने वाले टीवी देखते हुए स्वादिष्ट भोजन करते हुए दर्द को बेदर्दी से अचार बनाकर रोटी में लपेटकर खाते रहते हैं सरकार को चोर और पुलिस को निकम्मा बुलाते रहते हैं मगर उस चीख को कोई सुन नहीं पाता जो निकला था किसी के रूह के घायल होने के बाद वो चीख फिर से गुम हो जाती है अँधेरी गलियों में सिसकते हुए सुबकते हुए खो जाती है।
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