Menu
blogid : 1669 postid : 1012857

चीख!

मैं कवि नहीं हूँ!
मैं कवि नहीं हूँ!
  • 119 Posts
  • 1769 Comments

images

एक चीख जो गुम हो गयी
अँधेरी गलियों में
कानून की पेंचिदगी
और सामाजिक ढकोसलापन
के मायाजाल में
और गलती किसकी है
जैसे बेतुके सवाल में
एक दर्द जो बेदर्द कर गया
ज़ेहन में खौफ भर गया
सवाल दर सवाल
और फिर उनका जवाब
फिकर कहाँ हुई किसी को
कहाँ देखा किसी ने
कुचला हुआ ख्वाब
जो निडर थी
शक्ति का स्वरुप थी
इसकी उसकी हम सबकी
की गलती से
निशक्त हो निढाल हो
लुटती रही
छटपटाती रही
लूटने वाले को सपने सुनाती रही
मगर हवस कहाँ सुनता है
वो तो बस मांस का शौक़ीन है
बस में, कैब में
मेट्रो में, चौराहे पर
रोज कहीं कोई चीख
गुम हो जाता है
और मजे लेने वाले
टीवी देखते हुए
स्वादिष्ट भोजन करते हुए
दर्द को बेदर्दी से
अचार बनाकर रोटी में
लपेटकर खाते रहते हैं
सरकार को चोर और
पुलिस को निकम्मा बुलाते रहते हैं
मगर उस चीख को
कोई सुन नहीं पाता
जो निकला था
किसी के रूह के
घायल होने के बाद
वो चीख फिर से गुम हो जाती है
अँधेरी गलियों में
सिसकते हुए
सुबकते हुए
खो जाती है।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published.

    CAPTCHA
    Refresh